छठ पूजा-एक महापर्व
छठ पूजा एक बहुत ही बड़ा महापर्व है।जो अधिकतर पूर्व-उत्तरीय क्षेत्रों में मनाया जाता है।इसे चार दिनों तक पूरे विधि विधान के साथ मनाया जाता है।
इसे अधिकतर बिहार,झारखंड,पश्चिम बंगाल,और इससे साते हुए क्षेत्रों में मनाया जाता है।
सबसे पहला यानी कि कार्तिक की शुक्ल पक्ष के चतुर्थी के दिन "नहाई खाई" मनाई जाती है और इसे "कद्दू-भात"भी कहते है इस इसलिए क्योंकि इस दिन सभी लोग नहा-धोकर धुले हए वस्त्र पहन कर भात, दाल और कद्दू की सब्ज़ी बनाकर खाते है।
उसके अगले कार्तिक शुक्ल-पक्ष के पंचमी के दिन "खरना' होता है इस दिन इस दिन व्रत करने वाले पुरुष या स्त्री दिनभर अन्न ग्रहण नहीं करती है।उसी दिन रात को "छठ माँ" को दूध और गुड़ की खीर अर्पण की जाती है। चढ़ाने के उस कक्ष में जहां पूजा हुई है वहाँ से सब लोग बाहर निकल आते है और जो लोग व्रत किये होते है, वे कक्ष के अंदर जाकर दरवाज़ा बैंड कर लेते है और प्रशाद ग्रहण करते है।यदि उन्हें कोई शोर सुनाई देता है तोह उसी समय वे खाना छोड़ देते है और उतने ही खाए हुए वे दूसरे पूरे दिन व्रत करते है। जो लोग व्रत किये होते है उनके प्रशाद ग्रहण करने के बाद बाकी सभी लोगों को प्रशाद वितरित किया जाता है।
उसके अगले कार्तिक शुक्ल-पक्ष के षष्टी के दिन पहला अर्घ्य दिया जाता है। इसका मतलब है कि बहुत सारे फल खरीदकर जैसे नारियल,सेब,केला,बेर,ईख,इत्यादि और अनेक पकवान जैसे कि ठेकुआ,एडसा पूवा बनाकर बांस से बने सूप,कंडूल या बड़े पात्र में सजाया जाता है।इसके बाद इन पत्रों को साफ-सुथरे लाल कपडे में बांधकर नदी या तालाब में खाली-पेट आपने सर पर उठाकर ले जाया जाता है। इसके बाद नदी का किनारा साफ करके इन्हें वहीं रख दिया जाता है। इसके बाद सूर्य भगवान को अर्घ्य दिया जाता है मतलब जो लोग व्रत करते है वे इनमे से एक-एक पात्र को उठाकर सूर्य भगवान की और घूमकर सूर्य भगवान की आराधना करते है और सभी लोग इन पत्रों पर दूध अर्पित करते है,इसके बाद सारे पात्रों को सर पर उठाकर घर ले जाते है।
अगले दिन यानी कार्तिक शुक्ल सप्तमी के दिन "पारण" किया जाता है।मतलब पिछले दिन की तरह ही उन पत्रों को सर पर उठाकर नदी ले जाया जाता है और सूर्य देव और छठ माँ की आराधना की जाती है। उसके बाद उन्हें उठाकर घर लाया जाता है। और फिर घर लाकर एक बार फिर उनकी आराधना की जाती है। इसके बाद सभी को प्रशाद दिया जाता है, और जितने भी रिश्तेदार है उन्हें भी प्रशाद पहुंचाया जाता है। इस तरह इस महापर्व का अंतिम दिन भी समाप्त हो जाता है। इस पर्व को बिहारी लोग बड़ी ही निष्ठा के साथ मानते है।
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